[मित्र तुम्हारे प्रीत्यर्थ उत्सर्गित, सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए- कुन्दन कुमार मल्लिक नहीं, सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा कन्नू ]
कल बात कर रहा था
कुछ रंगों की
जिनमें परिलक्षित होते हैं
जीवन के कई रुप
वो रंग
जिनमें हैं कुछ स्याह भी
और कुछ सफेद भी
या फिर दृष्टिभ्रम कराते हुए
कुछ धूसर भी
लेकिन उन रुपों का क्या
जिनका कोई रंग नहीं
ऐसे ही तो कुछ सम्बन्ध भी हैं
जिनका कोई रंग नहीं
रुप नहीं और
ना नाम ही
वो सम्बन्ध
जो केवल मानवीय नहीं
वरन् आत्मीय मात्र हैं
जो यदा-कदा ही दिखते हैं
इन खुली आंखों से
फिर भी भान कराते
हमेशा अपने होने का
जिनका वजूद सीमित नहीं
सिर्फ दैहिक उपस्थिति तक
कुछ ऐसा ही रंग है
और यही रुप भी
मित्र तुम्हारे होने का
जिनका होना मात्र
हमेशा एक सम्बल रहा है
जीवन के हर उन क्षणों में
हर उन पीड़ाओं में
जिसे ना हम बाँट सकते
ना ही दिखा सकते
जिसे देखा है
केवल हमदोनों ने
जहाँ हमेशा गौण रहा
हमारा होना या न होना
कौन कह सकता है
हमारे इस दशक पुराने
सम्बन्ध मे
हमरा मिलना नगण्य रहा
मित्र आज धन्य हूँ
तुम्हारे साथ
रंग, रुप और नाम रहित
इस सम्बन्ध को पाकर ।
No comments:
Post a Comment