काव्य पल्लव

जीवन के आपाधापी से कुछ समय निकाल कर कल्पना के मुक्त आकाश में विचरण करते हुए कुछ क्षण समर्पित काव्य संसार को। यहाँ पढें प्रसिद्ध हिन्दी काव्य रचनाऐं एवं साथ में हम नव रचनाकारों का कुछ टूटा-फूटा प्रयास भी।
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Monday 25 August 2008

कामायनी- अष्टम सर्ग- ईर्ष्या (जयशंकर प्रसाद)

पल भर की उस चंचलता ने
खो दिया हृदय का स्वाधिकार,
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकार
मनु को अब मृगया छोड नहीं
रह गया और था अधिक काम
लग गया रक्त था उस मुख में-
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
हिंसा ही नहीं-और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर,
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढती हो अवसाद चीर।
जो कुछ मनु के करतलगत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन,
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं रुचता
अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुर्ललित लालसा जो कि कांत,
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
दब जाती अपने आप शांत।
"निज उद्गम का मुख बंद किये
कब तक सोयेंगे अलस प्राण,
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति,
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं
नव-नव स्मित रेखा में विलीन,
अनुरोध न तो उल्लास,
नहीं कुसुमोद्गम-साकुछ भी नवीन
आती है वाणी में न कभी
वह चाव भरी लीला-हिलोर,
जिसमेम नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो चंचल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत,
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक सी कभी क्लांत
बीजों का संग्रह और इधर
चलती है तकली भरी गीत,
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"
लौटे थे मृगया से थक कर
दिखलाई पडता गुफा-द्वार,
पर और न आगे बढने की
इच्छा होती, करते विचार
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,
मनु बैठ गये शिथिलित शरीर
बिखरे ते सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
" पश्चिम की रागमयी संध्या
अब काली है हो चली, किंतु,
अब तक आये न अहेरी
वे क्या दूर ले गया चपल जंतु
" यों सोच रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम,
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।
केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह
आँखों में आलस भरा स्नेह,
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिये देह
मातृत्व-बोझ से झुके हुए
बंध रहे पयोधर पीन आज,
कोमल काले ऊनों की
नवपट्टिका बनाती रुचिर साज,
सोने की सिकता में मानों
कालिदी बहती भर उसाँस।
स्वर्गगा में इंदीवर की या
एक पंक्ति कर रही हास
कटि में लिपटा था नवल-वसन
वैसा ही हलका बुना नील।
दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीडा
झेलती जिसे जननी सलील।
श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा
भावी जननी का सरस गर्व,
बन कुसुम बिखरते थे भू पर
आया समीप था महापर्व।
मनु ने देखा जब श्रद्धा का
वह सहज-खेद से भरा रूप,
अपनी इच्छा का दृढ विरोध-
जिसमें वे भाव नहीं अनूप।
वे कुछ भी बोले नहीं,
रहे चुपचाप देखते साधिकार,
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी
ज्यों जान गई उनका विचार।
'दिन भर थे कहाँ भटकते तम'
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-
"यह हिंसा इतनी है प्यारी
जो भुलवाती है देह-देह
मैं यहाँ अकेली देख रही पथ,
सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत,
कानन में जब तुम दौड रहे
मृग के पीछे बन कर अशांत
ढल गया दिवस पीला पीला
तुम रक्तारूण वन रहे घूम,
देखों नीडों में विहग-युगल
अपने शिशुओं को रहे चूम
उनके घर मेम कोलाहल है
मेरा सूना है गुफा-द्वार
तुमको क्या ऐसी कमी रही
जिसके हित जाते अन्य-द्वार?'
" श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं
पर मैं तो देक रहा अभाव,
भूली-सी कोई मधुर वस्तु
जैसे कर देती विकल घाव।
चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने
अवरूद्ध श्वास लेगा निरीह
गतिहीन पंगु-सा पडा-पडा
ढह कर जैसे बन रहा डीह।
जब जड-बंधन-सा एक मोह
कसता प्राणों का मृदु शरीर,
अकुलता और जकडने की
तब ग्रंथि तोडती हो अधीर।
हँस कर बोले, बोलते हुए निकले
मधु-निर्झर-ललित-गान,
गानों में उल्लास भरा
झूमें जिसमें बन मधुर प्रान।
वह आकुलता अब कहाँ रही
जिसमें सब कुछ ही जाय भूल,
आशा के कोमल तंतु-सदृश
तुम तकली में हो रही झूल।
यह क्यों, क्या मिलते नहीं
तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?
तुम बीज बीनती क्यों?
मेरा मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।
तिस पर यह पीलापन केसा-
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?
यह किसके लिए, बताओ तो क्या
इसमें है छिप रहा भेद?"
" अपनी रक्षा करने में जो
चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं-
हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।
पर जो निरीह जीकर भी
कुछ उपकारी होने में समर्थ,
वे क्यों न जियें, उपयोगी बन-
इसका मैं समझ सकी न अर्थ।
चमडे उनके आवरण रहे
ऊनों से चले मेरा काम,
वे जीवित हों मांसल बनकर
हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम।
वे द्रोह न करने के स्थल हैं
जो पाले जा सकते सहेतु,
पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं
तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।"
"मैं यह तो मान नहीं सकता
सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ,
जीवन का जो संघर्ष चले
वह विफल रहे हम चल जायँ।
काली आँखों की तारा में-
मैं देखूँ अपना चित्र धन्य,
मेरा मानस का मुकुर रहे
प्रतिबिबित तुमसे ही अनन्य।
श्रद्धे यह नव संकल्प नहीं-
चलने का लघु जीवन अमोल,
मैं उसको निश्चय भोग चलूँ
जो सुख चलदल सा रहा डोल
देखा क्या तुमने कभी नहीं
स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य?
फिर नाश और चिर-निद्रा है
तब इतना क्यों विश्वास सत्य?
यह चिर-प्रशांत-मंगल की
क्यों अभिलाषा इतनी जाग रही?
यह संचित क्यों हो रहा स्नेह
किस पर इतनी हो सानुराग?
यह जीवन का वरदान-मुझे
दे दो रानी-अपना दुलार,
केवल मेरी ही चिता का
तव-चित्त वहन कर रहे भार।
मेरा सुंदर विश्राम बना सृजता
हो मधुमय विश्व एक,
जिसमें बहती हो मधु-धारा
लहरें उठती हों एक-एक।"
"मैंने तो एक बनाया है
चल कर देखो मेरा कुटीर,"
यों कहकर श्रद्धा हाथ पकड
मनु को वहाँ ले चली अधीर।
उस गुफा समीप पुआलों की
छाजन छोटी सी शांति-पुंज,
कोमल लतिकाओं की डालें
मिल सघन बनाती जहाँ कुमज।
थे वातायन भी कटे हुए-
प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र,
आवें क्षण भर तो चल जायँ-
रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।
उसमें था झूला वेतसी-
लता का सुरूचिपूर्ण,
बिछ रहा धरातल पर चिकना
सुमनों का कोमल सुरभि-चूर्ण।
कितनी मीठी अभिलाषायें
उसमें चुपके से रहीं घूम
कितने मंगल के मधुर गान
उसके कानों को रहे चूम
मनु देख रहे थे चकित नया यह
गृहलक्ष्मी का गृह-विधान
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा
'यह क्यों'? किसका सुख साभिमान?'
चुप थे पर श्रद्धा ही बोली-
"देखो यह तो बन गया नीड,
पर इसमें कलरव करने को
आकुल न हो रही अभी भीड।
तुम दूर चले जाते हो जब-
तब लेकर तकली, यहाँ बैठ,
मैं उसे फिराती रहती हूँ
अपनी निर्जनता बीच पैठ।
मैं बैठी गाती हूँ तकली के
प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर-
'चल रि तकली धीरे-धीरे
प्रिय गये खेलने को अहेर'।
जीवन का कोमल तंतु बढे
तेरी ही मंजुलता समान,
चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटे
सुंदरता का कुछ बढे मान।
किरनों-सि तू बुन दे उज्ज्वल
मेरे मधु-जीवन का प्रभात,
जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल ढँक
ले प्रकाश से नवल गात।
वासना भरी उन आँखों पर
आवरण डाल दे कांतिमान,
जिसमें सौंदर्य निखर आवे
लतिका में फुल्ल-कुसुम-समान।
अब वह आगंतुक गुफा बीच
पशु सा न रहे निर्वसन-नग्न,
अपने अभाव की जडता में वह
रह न सकेगा कभी मग्न।
सूना रहेगा मेरा यह लघु-
विश्व कभी जब रहोगे न,
मैं उसके लिये बिछाऊँगा
फूलों के रस का मृदुल फे।
झूले पर उसे झुलाऊँगी
दुलरा कर लूँगी बदन चूम,
मेरी छाती से लिपटा इस
घाटी में लेगा सहज घूम।
वह आवेगा मृदु मलयज-सा
लहराता अपने मसृण बाल,
उसके अधरों से फैलेगी
नव मधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल।
अपनी मीठी रसना से वह
बोलेगा ऐसे मधुर बोल,
मेरी पीडा पर छिडकेगी जो
कुसुम-धूलि मकरंद घोल।
मेरी आँखों का सब पानी
तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध
उन निर्विकार नयनों में जब
देखूँगी अपना चित्र मुग्ध"
"तुम फूल उठोगी लतिका सी
कंपित कर सुख सौरभ तरंग,
मैं सुरभि खोजता भटकूँगा
वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।
यह जलन नहीं सह सकता मैं
चाहिये मुझे मेरा ममत्व,
इस पंचभूत की रचना में मैं
रमण करूँ बन एक तत्त्व।
यह द्वैत, अरे यह विधातो है
प्रेम बाँटने का प्रकार
भिक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं-
मैं लोटा लूँगा निज विचार।
तुम दानशीलता से अपनी बन
सजल जलद बितरो न विदु।
इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा
बन सकल कलाधर शरद-इंदु।
भूले कभी निहारोगी कर
आकर्षणमय हास एक,
मायाविनि मैं न उसे लूँगा
वरदान समझ कर-जानु टेक
इस दीन अनुग्रह का मुझ पर
तुम बोझ डालने में समर्थ-
अपने को मत समझो श्रद्धे
होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।
तुम अपने सुख से सुखी रहो
मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र,
' मन की परवशता महा-दुख'
मैं यही जपूँगा महामंत्र
लो चला आज मैं छोड यहीं
संचित संवेदन-भार-पुंज,
मुझको काँटे ही मिलें धन्य
हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।"
कह, ज्वलनशील अंतर लेकर मनु
चले गये, था शून्य प्रांत,
"रूक जा, सुन ले ओ निर्मोही"
वह कहती रही अधीर श्रांत।

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